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म॒न्द्रं होता॑रं॒ शुचि॒मद्व॑याविनं॒ दमू॑नसमु॒क्थ्यं॑ वि॒श्वच॑र्षणिम्। रथं॒ न चि॒त्रं वपु॑षाय दर्श॒तं मनु॑र्हितं॒ सद॒मिद्रा॒य ई॑महे॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mandraṁ hotāraṁ śucim advayāvinaṁ damūnasam ukthyaṁ viśvacarṣaṇim | rathaṁ na citraṁ vapuṣāya darśatam manurhitaṁ sadam id rāya īmahe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

म॒न्द्रम्। होता॑रम्। शुचि॑म्। अद्व॑याविनम्। दमू॑नसम्। उ॒क्थ्य॑म्। वि॒श्वऽच॑र्षणिम्। रथ॑म्। न। चि॒त्रम्। वपु॑षाय। द॒र्श॒तम्। मनुः॑ऽहितम्। सद॑म्। इत्। रा॒यः। ई॒म॒हे॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:2» मन्त्र:15 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:19» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! हम लोग जिस (होतारम्) ग्रहण करने और (मन्द्रम्) आनन्द देनेवाले (दमूनसम्) दमनशील (उक्थ्यम्) प्रशंसा करने योग्य (शुचिम्) पवित्र (विश्वचर्षणिम्) सबके देखने और (मनुर्हितम्) मनुष्यों के हित करने करनेवाले विद्वान् को प्राप्त होकर (रथम्) दृढ रमणीय यान के (न) समान (चित्रम्) अद्भुत और (वपुषाय) जिस व्यवहार में रूप विद्यमान उस व्यवहार के लिये (दर्शतम्) देखने योग्य (सदम्) अवस्थित और (अद्वयाविनम्) जो दो में नहीं विद्यमान ऐसे सीधे चलनेवाले अग्नि को (ईमहे) जांचते और उससे (रायः) धनों को जाँचते हैं, उस (इत्) ही को तुम लोग भी जाँचो ॥१५॥
भावार्थभाषाः - जो इन्द्रियों को दमन करनेवाले विद्वानों के निकट स्थित होकर अग्निविद्या को जानें, तो मनुष्य किस-किस धन को न प्राप्त हों ? ॥१५॥ इस सूक्त में विद्वान् और अग्नि के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह दूसरा सूक्त और उन्नीसवाँ वर्ग पूर्ण हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या वयं यं होतारं मन्द्रं दमूनसमुक्थ्यं शुचिं विश्वचर्षणिं मनुर्हितं विद्वांसं प्राप्य रथं न चित्रं वपुषाय दर्शतं सदमद्वयाविनं वह्निमीमहे तेन राय ईमहे तमिद्यूयमपि याचत ॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मन्द्रम) आनन्दप्रदम् (होतारम्) आदातारम् (शुचिम्) पवित्रम् (अद्वयाविनम्) यो द्वयोर्न विद्यते तं सरलगामिनम् (दमूनसम्) दमनशीलम् (उक्थ्यम्) प्रशंसनीयम् (विश्वचर्षणिम्) सर्वेषां दर्शकम् (रथम्) दृढं रमणीयं यानम् (न) इव (चित्रम्) अद्भुतम् (वपुषाय) वपूंषि रूपाणि विद्यन्ते यस्मिंस्तस्मै व्यवहाराय। अत्र अर्श आदिभ्योऽजिति वेद्यम्। (दर्शतम्) द्रष्टुं योग्यम् (मनुर्हितम्) मनुष्याणां हितकारकम् (सदम्) अवस्थितम् (इत्) एव (रायः) धनानि (ईमहे) याचामहे ॥१५॥
भावार्थभाषाः - यदि दान्तानां विदुषां संनिधौ स्थित्वा वह्निविद्यां जानीयुस्तर्हि मनुष्याः किं किं धनं न प्राप्नुयुरिति ॥१५॥ अत्र विद्वद्वह्निगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्वितीयं सूक्तमेकोनविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे इंद्रियदमन करणाऱ्या विद्वानाजवळ स्थित होऊन अग्निविद्या जाणतात त्या माणसांना कोणते धन प्राप्त होणार नाही? ॥ १५ ॥